कुछ कहते कहते रुक कर एक बार आस पास देख लेती हूँ कि कोई सुनने वाला तो है ना, अब अकेले बोलते चले जाने से डर लगता है। पता नही कब से ये किसी सुनने वाले की ज़रूरत पड़ने लगी है। और ये भी नहीं पता की कब से ये बोलने सुनने की आदत पड़ गयी है। बचपन में आराम से चुप रह लेती थी घंटो तक। कुछ साल पहले तक भी। पर अब बोले बिना घबराहट होती है।
चलो, जो भी हो, ये भरोसा तो है थोडा बहुत की तुम तो सुन ही लोगे, और तुम ज़्यादातर समझ भी लेते हो। ये भी यकीन है कि नही भी समझोगे तो कुछ बुरा नही समझोगे, मुझे पागल नही समझोगे। पहले तो मज़ा आता था जब कोई पागल कहता था, क्योंकी पता लग जाता था कि उनको मेरी बात समझ में नही आ रही है। अब तो सभी ऐसे पेश आते हैं तो में डर जाती हूँ। तुम रहना यार, कुछ और नही चाहिऐ, बस बातें करेंगे।
चलो, जो भी हो, ये भरोसा तो है थोडा बहुत की तुम तो सुन ही लोगे, और तुम ज़्यादातर समझ भी लेते हो। ये भी यकीन है कि नही भी समझोगे तो कुछ बुरा नही समझोगे, मुझे पागल नही समझोगे। पहले तो मज़ा आता था जब कोई पागल कहता था, क्योंकी पता लग जाता था कि उनको मेरी बात समझ में नही आ रही है। अब तो सभी ऐसे पेश आते हैं तो में डर जाती हूँ। तुम रहना यार, कुछ और नही चाहिऐ, बस बातें करेंगे।
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